उसका अपना कोना
आखिर उसकी यह कैसी लाचारी है, जो अपनी व्यथा किसी को पता तक नहीं चलने देती| आधुनिक समय में ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं, घूंट-घूंट कर जीना और खामोश रहकर भी दर्द पालते रहना | ऐसे जो थोड़े बहुत हैं भी वे सब के सब संस्कृति के रक्षक जैसे दानव नज़र आते हैं| दानव से तात्पर्य यह है कि उनका अपना सब कुछ दूसरों के लिए न्योछावर हो चूका रहता है | आखिर वह क्यों कहती है कि उसे किसी का दिल दुखाना अच्छा नहीं लगता ? इसके बारे में कोई जानने की कोशिश किया है, नहीं न ? केवल इसलिए कि उसका प्रसन्न चित रहना उसके अपने ही परिवार के लोगों को अच्छा नहीं लगता| यह कैसी बिडम्बना है कि उसी परिवार में लड़कों की ख़ुशी के लिए चाहे जो भी हो कोई भी उद्यम करके उसकी मांग की पूर्ति की जाती है |
रजो के इस तरह संवेदनशील बनने के पीछे शायद उसे अपने परिवार में मिला बहुत थोडा सा प्यार इसका सबसे बड़ा कारण रहा हो कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी| बातों ही बातों में उसने अपने जीवन की परत प्याज के आवरणों जैसे खोलती चली गयी | फिर भी वह पता नहीं क्यों मुझे एक के बाद एक अपने जीवन के उन सभी अनुभवों को जो एक जड़ता से भरा संभ्रांत परिवार में आज भी देखने को मिल जाता है के बारे में बताने लगी| उसी दिन यह लग गया कि केवल पैसा और उससे खरीदी गयी ख़ुशी को जीवन जीने का जरिया ज्यादा दिन तक बना कर नहीं रखा जा सकता| पैसे से ढक देने की बात करने वाले भाइयों और उनकी चढ़ी हुई त्योरियां यह कतई मानने को तैयार नहीं है कि एक बहन को किस चीज़ की जरुरत पड़ती है| शायद उसकी जरुरत तो बिलकुल नहीं जिसे वे नज़रन्दाज करते हैं| यह सोच कर कभी-कभी लगता है कि समाज में इतना दिखावे के रिश्ते आखिर क्यों, और कब तक रहेंगे ? इसके मूल्यों को जिन्दा रखने के लिए आखिर कब तक बेटियां अपनी बलि देती रहेंगी ? इस देश का कानून कहाँ-कहाँ उन्हें संबल प्रदान करता रहेगा ? आखिर उन भाइयों की अपनी बेटियां क्यों उन पारिवारिक मान्यताओं को तोड़ने के बावजूद भी प्यारी बनी रहती है ? अरविन्द जैन कहते हैं कि औरतों को सबसे पहले अपने पिता और भाई से हक़ के लिए लड़ना चाहिए, बाद में ससुराल और समाज से| क्योंकि उनके पांव में बेड़िया परिवार ही तो डालती है| जिसमें कई बार माँ की भूमिका भी प्रमुख होती है| माँ भी क्या करें उनकी अपनी नाक की चिंता सबसे ज्यादा रहती है| इन तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद भी आज के समाज में एक महिला की दुश्मन यदि सबसे ज्यादा कोई है तो वह है महिला | स्त्रीवाद के नाम पर यह कतई नहीं कहा जा सकता कि स्त्रियों के अपने मुद्दों पर अंतर्विरोध नहीं होते| इसकी प्रमाणिकता पर कोई संदेह नहीं है कि गर्भ में पल रही 'मादा फ्युट्स' को मारने वाली भी महिला ही होती है| यह बात दूसरी है कि इन कु कृत्यों के पीछे समाज में चली आ रही मान्यताओं को जिम्मेदार ठहरा दिया जाए लेकिन सुधार भी खुद से शुरू होता है और बिगाड़ भी |
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग-भेद आधारित विभिन्न प्रकार की असमानताएं व्याप्त है| लेकिन संस्कृति को केवल गुनाहगार साबित करना अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना होगा| समाज में अधिकार और सम्मान सभी का मूल अधिकार है | जिसे बनाये रखने के लिए सामूहिक रूप से आगे बढ़कर लड़ना होगा| सवाल यह है कि इसकी शुरुवात आखिर कहाँ से की जाये ? इसकी शुरुआत के लिए क्या वह जगह मुफीद नहीं हो सकता जहाँ वह पली-बढ़ी हो और उसके अपने वजूद हों....... ?
आखिर उसकी यह कैसी लाचारी है, जो अपनी व्यथा किसी को पता तक नहीं चलने देती| आधुनिक समय में ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं, घूंट-घूंट कर जीना और खामोश रहकर भी दर्द पालते रहना | ऐसे जो थोड़े बहुत हैं भी वे सब के सब संस्कृति के रक्षक जैसे दानव नज़र आते हैं| दानव से तात्पर्य यह है कि उनका अपना सब कुछ दूसरों के लिए न्योछावर हो चूका रहता है | आखिर वह क्यों कहती है कि उसे किसी का दिल दुखाना अच्छा नहीं लगता ? इसके बारे में कोई जानने की कोशिश किया है, नहीं न ? केवल इसलिए कि उसका प्रसन्न चित रहना उसके अपने ही परिवार के लोगों को अच्छा नहीं लगता| यह कैसी बिडम्बना है कि उसी परिवार में लड़कों की ख़ुशी के लिए चाहे जो भी हो कोई भी उद्यम करके उसकी मांग की पूर्ति की जाती है |
रजो के इस तरह संवेदनशील बनने के पीछे शायद उसे अपने परिवार में मिला बहुत थोडा सा प्यार इसका सबसे बड़ा कारण रहा हो कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी| बातों ही बातों में उसने अपने जीवन की परत प्याज के आवरणों जैसे खोलती चली गयी | फिर भी वह पता नहीं क्यों मुझे एक के बाद एक अपने जीवन के उन सभी अनुभवों को जो एक जड़ता से भरा संभ्रांत परिवार में आज भी देखने को मिल जाता है के बारे में बताने लगी| उसी दिन यह लग गया कि केवल पैसा और उससे खरीदी गयी ख़ुशी को जीवन जीने का जरिया ज्यादा दिन तक बना कर नहीं रखा जा सकता| पैसे से ढक देने की बात करने वाले भाइयों और उनकी चढ़ी हुई त्योरियां यह कतई मानने को तैयार नहीं है कि एक बहन को किस चीज़ की जरुरत पड़ती है| शायद उसकी जरुरत तो बिलकुल नहीं जिसे वे नज़रन्दाज करते हैं| यह सोच कर कभी-कभी लगता है कि समाज में इतना दिखावे के रिश्ते आखिर क्यों, और कब तक रहेंगे ? इसके मूल्यों को जिन्दा रखने के लिए आखिर कब तक बेटियां अपनी बलि देती रहेंगी ? इस देश का कानून कहाँ-कहाँ उन्हें संबल प्रदान करता रहेगा ? आखिर उन भाइयों की अपनी बेटियां क्यों उन पारिवारिक मान्यताओं को तोड़ने के बावजूद भी प्यारी बनी रहती है ? अरविन्द जैन कहते हैं कि औरतों को सबसे पहले अपने पिता और भाई से हक़ के लिए लड़ना चाहिए, बाद में ससुराल और समाज से| क्योंकि उनके पांव में बेड़िया परिवार ही तो डालती है| जिसमें कई बार माँ की भूमिका भी प्रमुख होती है| माँ भी क्या करें उनकी अपनी नाक की चिंता सबसे ज्यादा रहती है| इन तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद भी आज के समाज में एक महिला की दुश्मन यदि सबसे ज्यादा कोई है तो वह है महिला | स्त्रीवाद के नाम पर यह कतई नहीं कहा जा सकता कि स्त्रियों के अपने मुद्दों पर अंतर्विरोध नहीं होते| इसकी प्रमाणिकता पर कोई संदेह नहीं है कि गर्भ में पल रही 'मादा फ्युट्स' को मारने वाली भी महिला ही होती है| यह बात दूसरी है कि इन कु कृत्यों के पीछे समाज में चली आ रही मान्यताओं को जिम्मेदार ठहरा दिया जाए लेकिन सुधार भी खुद से शुरू होता है और बिगाड़ भी |
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग-भेद आधारित विभिन्न प्रकार की असमानताएं व्याप्त है| लेकिन संस्कृति को केवल गुनाहगार साबित करना अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना होगा| समाज में अधिकार और सम्मान सभी का मूल अधिकार है | जिसे बनाये रखने के लिए सामूहिक रूप से आगे बढ़कर लड़ना होगा| सवाल यह है कि इसकी शुरुवात आखिर कहाँ से की जाये ? इसकी शुरुआत के लिए क्या वह जगह मुफीद नहीं हो सकता जहाँ वह पली-बढ़ी हो और उसके अपने वजूद हों....... ?