Sunday, June 11, 2023

सामाजिक न्याय की चोरमदारी

सामाजिक न्याय को लेकर देश में शुरू से घालमेल रहा है, एक धड़े से जुड़े लोग जातीय वर्चस्व को कायम करने को सामाजिक न्याय मानते हैं, वही दूसरे धड़े से जुड़े लोग जमात को मजबूत कर उनके हक़ में पॉलिसी बनाकर वंचितों को फायदा पहुंचाने को असली सामाजिक न्याय कहते हैं। आज़ादी के बाद शुरू हुई उक्त वैचारिकी ने लोकसम्मत आंदोलनों के माध्यम से इसका पुख़्ता प्रमाण पेश किया, जिसका असर संसोपा में देखने को मिलते थे.. वहां जमात प्रमुख होता था, कालांतर में जाति केंद्रीय मुद्दा बनती गई और अब ना तो संसोपा रही ना ही जमात की बात....। तात्कालिक सामाजिक पसमंजर को निम्नलिखित उदाहरणों से समझ सकते हैं। 

{पसमांदा सम्मेलन~बुनकर सम्मेलन}

Saturday, June 10, 2023

बाबा कबीर की जयंती पर विशेष ।( पुराना पोस्ट)

आज बाबा कबीर की जयंती है। 
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अपनी वाणियों के माध्यम से उन्होंने पहली बार अशराफों द्वारा गढ़ी गई किंवदंतियों और धार्मिक आडंबरों के खिलाफ़ जो आवाज़ उठाई वह अनवरत रूप से आज भी जारी है। 

चूंकि हिंदू धर्म में आलोचना स्वीकार्य रही है इसलिए कबीर को इधर ठेल दिया गया, और प्रचारित किया गया कि उन्होंने हिंदुओं के अंदर की विसंगतियां बढ़ाने वाले ब्राह्मणों पर चोट किया। यह एक सोची समझी साजिश लगती है, जिसके तहत कबीर द्वारा शेख, सैय्यदों, खानों और पठानों के खिलाफ़ कही/ लिखी गई वाणियों को गायब कर दिया गया है। केवल बामन-बामनी, पांडे, शुकुल, तिवारी, दुबे तक ही उनकी आलोचना को सिमट दिया गया। अर्थात कबीर को लिखित रूप में मुख्य रुप से ब्राह्मण और हिंदू धर्म के आलोचक के रूप में स्थापित किया गया। 

सवाल उठता है कि कोई विचारक जिसने हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों की रूढ़ियों पर चोट की। लेकिन हिंदू धर्म से आने वाले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ही उनके ऊपर मुकम्मल पुस्तक "कबीर" लिखी, जिसके बाद अकादमिक जगत में कबीर को जगह मिली। इनके इतर कालांतर में अनेक विद्वानों ने भी विभिन्न ग्रंथ और लेख लिखे। लेकिन ताज्जुब की बात है कि किसी सैय्यद साहब ने अपनी किसी भी रचना में कबीर के विराट व्यक्तित्व को नहीं उभारा। इसका मतलब है कि उस समय कबीर ने मुस्लिम अशराफों द्वारा की जा रही ज्यादतियों के बारे में भर-भर के लिखा हो, जो मुस्लिम हाइपोक्रेसी के तहत दबा दिया गया हो, या उस अंश को कलमबद्ध नहीं किया गया हो, प्रमाण नष्ट कर दिए गए हों आदि।

पिछले 100 साल के इतिहास का मूल्यांकन करने से ही पता चल जाता है कि किस तरह से सेकुलरिज्म की आड़ में मुस्लिम अशराफ के वर्चस्व और उनके पसमांदा विरोधी कारनामों पर पर्दा डाला जाता रहा है। उसी वहज से बुनकर जाति से ताल्लुक रखने वाले कबीर जैसे दार्शनिक को भी सोची समझी साजिश के तहत दरकिनार कर दिया गया हो। बहुत हद तक संभव है कि इस मुहिम में सत्ता के केंद्र में बैठे लोगों की भी बड़ी भूमिका रही हो, जिसका पोषण केंद्र में बैठे मुस्लिम समुदाय के आकाओं के इशारे पर किया जाता रहा है। 

एक अन्य बात, देश भर में लिबरल एवं सेक्युलर की पाठ पढ़ने और पढ़ाने वाले लोग भी सबसे सेक्युलर दार्शनिक कबीर के ऊपर कोई अध्ययन पीठ और संस्थान नहीं बना पाए। तो इस शातिराना मंशा को क्या समझा जाए, अशराफ तुष्टिकरण या मुस्लिम वोटबैंक की राजनीति ? 

कबीर को समझने के लिए आज भी उनके चौरा मठों में जाना और रहना पड़ता है। कई मायनों में कबीरपंथी लोग ही कबीर साहित्य के प्रमाणिक स्रोत हैं। 

अब... जब देश दुनियां डिजिटल साहित्यिक श्रोतों से पटा पड़ा है, वैसे में कबीर जैसे दार्शनिक को मठों से उठाकर विश्विद्यालाओं में कबीर अध्ययन पीठ स्थापित करने और कबीर चौरा मठ के ज्ञानियों को इसका प्रमुख बनाने की जरूरत है। इससे एक तरफ देश में सामासिक संस्कृति को मजबूती मिलेगी तो दूसरी तरफ़ सदियों से दरकिनार कर दिए गए पसमांदा मुस्लिम समुदाय के मुद्दों को भी गंभीरता के साथ समझने और विचारने में आसनी होगी। 

अब समय आ गया है कि पसमांदा समाज की व्यथा और पीड़ा की जड़ में निहीत लोच-तंत्र को उजागर कर उनके बेहतर कल के लिए काम किया जाए।
(विनय भूषण)

जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय |
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ||

ओबीसी एवं दलित

ओबीसी में आने वाली कुछ जातियों के साथ तथाकथित अछूत कही जाने वाली जातियां भी भेदभाव करती हैं। 

इस तरह के भेदभाव को डिस्क्रिमिनेशन की किस श्रेणी में रखा जायेगा? आप एम. एन. श्रीनिवास और जी. एस. घुरिये के सिद्धांत को नहीं मानते हैं तो मत मानें, चलेगा... लेकिन स्तरीकरण की इस बीमारी का कोई इलाज़ ज़रूर बताईए। मेरे फेसबुक फ्रेंड लिस्ट में समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र एवं इतिहास के विद्वान जुड़े हुए हैं, इसलिए सोचा कि वर्चुअल प्लेटफार्म पर ही यह प्रश्न पूछ डालूं। ताकि बाकी उन जिज्ञासुओं के शंका का भी समाधान हो जाए जिन्हें जाति से जुड़े कॉम्प्लेक्स प्रश्नों को पूछने की हिम्मत नहीं होती।