सामाजिक न्याय को लेकर देश में शुरू से घालमेल रहा है, एक धड़े से जुड़े लोग जातीय वर्चस्व को कायम करने को सामाजिक न्याय मानते हैं, वही दूसरे धड़े से जुड़े लोग जमात को मजबूत कर उनके हक़ में पॉलिसी बनाकर वंचितों को फायदा पहुंचाने को असली सामाजिक न्याय कहते हैं। आज़ादी के बाद शुरू हुई उक्त वैचारिकी ने लोकसम्मत आंदोलनों के माध्यम से इसका पुख़्ता प्रमाण पेश किया, जिसका असर संसोपा में देखने को मिलते थे.. वहां जमात प्रमुख होता था, कालांतर में जाति केंद्रीय मुद्दा बनती गई और अब ना तो संसोपा रही ना ही जमात की बात....। तात्कालिक सामाजिक पसमंजर को निम्नलिखित उदाहरणों से समझ सकते हैं।
{पसमांदा सम्मेलन~बुनकर सम्मेलन}
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